आज भी हमारे इस सुसंस्कृत समाज में ऐसे कुछ सभ्य पढ़े लिखे प्रबुद्धजनों की कमी नहीं जो बेटियों के जन्म से व्यथित हो जाते हैं। क्यों? प्रश्न के जवाब में उनका रटा रटाया एक ही जुमला सुनने को मिलता है-
"भाई !बेटी तो पराई होती है।"
उनके लिए बेटा प्यारा और
बेटी लाचारी होती है
क्योकि मज़बूरी है क्या करें?
बेटी तो पराई होती है।
ये कविता उन तर्कवान लोगों को समर्पित -
सबकी ख़ुशी के लिए एक दिन,
जो अपना ही घर छोड़ आई।
जाने कैसे कह देते हैं,
एक पल में उसे "पराई"।
अपनी खुशियों के मोती से,
माला उसने आपके लिए बनाई।
पर है तो वो बेटी और,
बेटी तो होती है "पराई"।
दामन में उसके दुःख हैं,
पर आपके चेहरे पर न छाए उदासी,
इसलिए हर पल वो मुस्कुराई।
फिर भी बेटी जाने क्यों होती है "पराई" ।
आपकी पलकें भीगी नहीं,
लो उसकी भी आँखें छलक आईं।
कितने गुणों की खान हो पर,
बेटी तो होती है "पराई" ।
अपनी हर मुस्कान में,
आपकी पीड़ा को समेट लाई।
लाख जतन करले पर ,
वो कहलाएगी बस "पराई"।
छोटे से इस आँचल में,
आपके लिए खुशियाँ तो ढेर बटोर लाई ।
पर नहीं ला पाई वो "अपनापन",
तो होगी ही "पराई"।
सहनशीलता, संयम, धैर्य की,
जब भी बात है आई ।
सबके अधरों पर नाम बेटी का,
पर कहते फिर भी "पराई" ।
मायके में "मर्यादा",
ससुराल में "लक्ष्मी" कहलाई ।
पर अपनी किसी की फिर भी नहीं,
हर जगह सम्बोधन बस "पराई"।
बसाकर अपना घर भी,
माँ-पिता का मोह न छोड़ पाई,
देह ससुराल में रमी मगर,
आत्मा मायके में बसाई,
वो दुनिया में कोई नहीं बस.……
एक बेटी होती है भाई,
मत कहो.…… अरे !मत कहो.……… मत कहो उसे .……
"पराई"
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