रविवार, 19 अप्रैल 2015

"पराई"

आज भी हमारे इस सुसंस्कृत समाज में ऐसे कुछ सभ्य पढ़े लिखे प्रबुद्धजनों की कमी नहीं जो बेटियों के जन्म से व्यथित हो जाते हैं। क्यों? प्रश्न के जवाब में  उनका रटा रटाया एक ही जुमला सुनने को मिलता है-
"भाई !बेटी तो पराई होती है।"
उनके लिए बेटा प्यारा और
 बेटी लाचारी होती है 
क्योकि मज़बूरी है क्या करें?
बेटी तो पराई होती है। 
ये कविता उन तर्कवान लोगों को समर्पित -

सबकी ख़ुशी के लिए एक दिन,
जो अपना ही घर छोड़ आई। 
जाने कैसे कह देते हैं, 
एक पल में उसे "पराई" 

अपनी खुशियों के मोती से, 
माला उसने आपके लिए बनाई।
पर है तो वो बेटी और, 
बेटी तो होती है "पराई"

दामन में उसके दुःख हैं,
पर आपके चेहरे पर न छाए उदासी, 
इसलिए हर पल वो मुस्कुराई। 
फिर भी बेटी जाने क्यों होती है "पराई

आपकी पलकें भीगी नहीं,
लो उसकी भी आँखें छलक आईं। 
कितने गुणों की खान हो पर, 
बेटी तो होती है "पराई

अपनी हर मुस्कान में,
आपकी पीड़ा को समेट लाई। 
लाख जतन करले पर ,
वो कहलाएगी बस "पराई"

छोटे से इस आँचल में, 
आपके लिए खुशियाँ तो ढेर बटोर लाई 
पर नहीं ला पाई वो "अपनापन",
तो होगी ही "पराई"

सहनशीलता, संयम, धैर्य की, 
जब भी बात है आई 
सबके अधरों पर नाम बेटी का,
पर कहते फिर भी "पराई

मायके में "मर्यादा", 
ससुराल में "लक्ष्मी" कहलाई 
पर  अपनी किसी की फिर भी नहीं,
हर जगह सम्बोधन बस "पराई"

बसाकर अपना घर भी,
माँ-पिता का मोह न छोड़ पाई,
देह ससुराल में रमी मगर, 
आत्मा मायके में बसाई,
वो दुनिया में कोई नहीं बस.…… 
एक बेटी होती है भाई,
मत कहो.…… अरे !मत कहो.……… मत कहो उसे .…… 
"पराई"
 dj  कॉपीराईट © 1999 – 2020 Google
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मेरे द्वारा इस ब्लॉग पर लिखित/प्रकाशित सभी सामग्री मेरी कल्पना पर आधारित है। आसपास के वातावरण और घटनाओं से प्रेरणा लेकर लिखी गई हैं। इनका किसी अन्य से साम्य एक संयोग मात्र ही हो सकता है।
एक लेखनी मेरी भी  http://lekhaniblog.blogspot.in/ 



शनिवार, 11 अप्रैल 2015

मुस्कान

आज dj की लेखनी का मन है,आपको एक संस्मरण के दर्शन कराने का। 
मैं इस बात से बिलकुल अनभिज्ञ हूँ कि ये संस्मरण मेरे पाठकों के लिए उपयोगी है या नहीं ?ये भी नहीं जानती कि किसी के व्यक्तिगत संस्मरण को पढ़ने में सभी पाठकों की रूचि है या नहीं ?मगर वो नन्हीं-सी बालिका और उसकी प्यारी सी मुस्कान,मुझे रोक ही नहीं पाई लिखने से.…ये संस्मरण आज भी मेरी अमूल्य यादों का एक अभिन्न हिस्सा है। मेरे दृष्टिपटल पर वैसा ही विराजमान है और उसकी वो प्यारी मुस्कान भी.…। आज यहाँ लिखकर उस गुड़िया की मुस्कान को आप सब के साथ बाँटने जा रही हूँ। 
            

               एक बार मैं अपने पति महोदय के साथ देवास माता मंदिर दर्शन करने के उद्देश्य से पहुँची।मंदिर ऊँची टेकरी पर स्थित है। मंदिर की चढ़ाई शुरू होने से अंत तक फूल-मालाओं और प्रसाद  के साथ-साथ मूर्तियों,तस्वीरों और अन्य वस्तुओं की दुकाने सजी हुईं थी। चढ़ाई खत्म होने के पश्चात् टेकरी पर दो मुख्य मंदिर हैं जिनमे माँ तुलजा भवानी और चामुंडा माता की मूर्तियां विराजित हैं।इन्हें आम बोलचाल की भाषा में लोग क्रमशः बड़ी माता एवं छोटी माता कहते हैं। जिन पाठकों 
ने इस धार्मिक स्थल का भ्रमण किया है,वे जानते हैं इन दो मुख्य मंदिरों के दर्शन के पश्चात् की जाने वाली परिक्रमा की परिधि करीब दस से बारह मिनट की है और परिक्रमा करते हुए इस परिधि के अंतर्गत अनेक देवी-देवताओं के कईं छोटे-छोटे मंदिर बने हुए हैं। इन मंदिरों के पुजारी सुबह से यहाँ आकर मंदिरो की सेवा-पूजा में लग जाते हैं। अपने साथ खाने पीने का कुछ जरूरी सामान साथ ही लेकर बैठते हैं क्योंकि चढ़ाई चढ़ने के बाद ऊपर खाने पीने की कोई व्यवस्था नहीं होती।(वर्तमान में कुछ थोड़ी बहुत दुकानों की व्यवस्था हो चुकी है।)
                       

                     हम भी  दर्शन के पश्चात परिक्रमा करने लगे सभी लोग हर मंदिर में एक-दो रुपये की दक्षिणा रखते चले जा रहे थे। एक मंदिर  में एक छोटी सी बालिका जिसकी उम्र शायद कुछ सात-आठ वर्ष होगी, अपनी दादी के साथ बैठी थी। साधारण पर एकदम साफ़-स्वच्छ कपड़े और करीने से बंधे हुए बाल। उसके चेहरे पर अलग ही आभा चमक रही थी। उस पर उसका इतना मासूम-सा मुखमण्डल कि उसे देखते ही मैं उस पर मोहित हुए बिना रह ही न सकी। वो शायद अपनी दादी से बड़े प्यार मनुहार से कुछ विनती कर रही थी।ये नज़ारा दूर से ही दिखाई दे रहा था। उस मंदिर के समक्ष पहुँची नहीं थी मैं अभी। इसलिए उसकी बातें तो हमारे कानों तक नहीं पहुँच रही थी मगर उसके चेहरे की भाव-भंगिमाओं से ये निश्चित था कि वो उनसे कुछ मांग रही थी और उसकी दादी उसे समझा रही थी।शायद कह रही थी इतनी चढ़ाई उतरकर नीचे जाने और फिर चढ़कर ऊपर आने में उन्हें कष्ट होगा।बालिका छोटी होते हुए भी काफी समझदार थी। शायद इसलिए उनके एक बार समझाने पर ही मान गई। पर उसके मुखमण्डल पर माँगी चीज़ न मिल पाने की उदासी 
तो फिर भी छलक ही आई थी।
                            

                           ये सारा घटनाक्रम देखते देखते आखिरकार हम उस मंदिर के समक्ष पहुंचे। पति महोदय का ध्यान भी मेरी तरह उसी घटनाक्रम की और था शायद..... और वो मुझसे भी अच्छी तरह सारी स्थिति को भाँप गए थे। मैं कुछ समझ पाती उसके पहले उन्होंने जेब में हाथ डाला...... मगर.... सिक्का निकाल कर दान पेटी में डालने की जगह......एक चॉकलेट निकाली और उस गुड़िया के हाथ में थमा दी। और उसके चेहरे पर तुरंत मुस्कान बिखर गई एकदम इंस्टैंट......जैसे किसी लाइट का बटन दबाया और तुरंत प्रकाश बिखर गया हो और उसकी वो मुस्कुराहट हम दोनों के चेहरों पर मुस्कान लाये बिना न रह सकी। वो शायद कब से चॉकलेट ही माँग रही थी,मगर इतनी चढ़ाई उतरकर उसके लिए चॉकलेट लेने जाना और वापिस आना उसकी उम्रदराज़ दादी के लिए बहुत ही पीड़ादायक था। और मन माँगी चीज न मिल पाना उस बालिका के लिए। उस एक छोटी सी चॉकलेट ने दो लोगों की पीड़ा का समाधान कर दिया। 
                 वैसे भी भारतवर्ष में कन्याओं को "देवी" का रूप माना जाता रहा है,शायद ईश्वर ने हमारे हाथों उसकी वो छोटी सी मुराद पूरी करना ठानी हो बहुत शांति और सुकून की अनुभूति हुई घटना के बाद उसे खुश देखकर। शायद हमने उस कन्या के रूप में सच में एक जीती जागती "देवी "को प्रसन्न कर लिया था। 
         
                   इस घटना के बाद से हमने तय कर लिया है कि जब भी किसी चढ़ाई वाले मंदिर या दर्शनीय स्थल पर जायेंगे तो एक दो अतिरिक्त पानी की बोतलें,कुछ अतिरिक्त खाना, कुछ चॉकलेट्स और एक फर्स्ट ऐड बॉक्स जरूर साथ लेकर जाएँगे। 
                   
                   इसे हम शायद दान तो नहीं कह सकते, मगर जीवन में ऐसी छोटी -छोटी खुशियाँ बाँटते रहने से मन को बहुत आनंद की अनुभूति होती है।दान चाहे पैसों का न किया जाये,मगर जो किसी की भूख को तृप्त कर सके, किसी का तन ढँक सके, किसी के चेहरे पर थोड़ी सी देर के लिए ही सही मुस्कान ला सके, ऐसा दान अपने जीवन में हम सभी को कभी न कभी कर ही लेना चाहिए। है! ना ? तो जरूर कीजिये। क्या पता आपके जीवन में भी कोई ऐसी गुड़िया आपके स्मृतिपटल पर वो सुन्दर मुस्कान छोड़ जाए। क्या कहते हैं आप? 
ना! ना! कहिये नहीं। लिखिए, नीचे टिप्पणी में। 

(स्वलिखित) dj  कॉपीराईट © 1999 – 2015 Google



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बुधवार, 8 अप्रैल 2015

कैसे सीख गई मैं "माँ"

पता नहीं कैसे सीख गई मैं माँ,
रोटी बनाना,
अब तो गोल बना लेती हूँ।  
वो भारत का नक्शा,
अब नक्शा नहीं,
पृथ्वी जैसा दिखता है।  
आधा पक्का,आधा कच्चा,
सिकता था जो,
अब अच्छे से सिकता है। 

न जाने कैसे मैं सीख गई माँ,
सब्जी बनाना, 
जो कभी तीखी,
कभी फीकी,
कभी,
लगभग बेस्वाद सी बनती थी
अब तो,
हर एक मसाला उसमे,
बराबर डलता है 
नमक बिना माप भी,
अब तो,
एकदम सही पड़ता है।  

जाने कब सीख गई मैं.
तय बजट में घर चलाना,
हर महीने,
कपड़ों पे खर्च कर देने वाली मैं,
अब तो,
पाई पाई का हिसाब रखती हूँ।
जरुरत की चीजों की खरीदी पर भी
अब तो,
काफी कंट्रोल करती हूँ

जाने मैं सीख कैसे गई माँ,

यूँ सबका ख्याल रखना,
किसी की परवाह न करने वाली मैं,
अब सबके लिए सोचने लगी हूँ,
खुद से भी ज्यादा तो
अब मैं,
दूसरों की चिन्ता करने लगी हूँ।

और जाने कैसे सीख गई,

मैं चुप रहना,
सबकुछ यूँ चुपचाप सहना,
आप पर बात बात पे झल्लाने वाली मैं,
अब अधिकतर मौन ही रहती हूँ ,
आज गलती नहीं मेरी कोई,
सही हूँ ,
फिर भी चुपचाप सब सहती हूँ।

न जाने कैसे सीख गई

इतनी दुनियादारी,
मैं माँ,
कभी छोटी -छोटी बातों पे भी
आहत हो जाने वाली मैं,
आज बड़े बड़े दंश झेलना सीख गई,
एक छोटी सी परेशानी पर भी
फूट फूट कर रोने वाली मैं,
आज अकेले में पलकों की कोरें
गीली करना सीख गई।


पता नहीं कैसे सीख गई मैं,
"माँ"
ये सबकुछ,
जो मेरे बस का न था ,
ऐसा मुझे लगता था।  
जो मेरे लिए बना न था ,
ऐसा मुझे लगता था। 
पर देखो सीख ही गई मैं,
पता नहीं कैसे ?

(स्वरचित) dj  कॉपीराईट © 1999 – 2015 Google

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रविवार, 5 अप्रैल 2015

नारी की कहानी

ए नारी तेरी हरदम नई कहानी,
कहीं तू गंगाजल की बूँद,तो कहीं बहता पानी।
तेरे बिन ये दुनिया कैसे सुहानी?
कहीं तू गंगाजल की बूँद तो कहीं बहता पानी।

तू ज्योत कभी मंदिर की तो कहीं चूल्हे की आग है,
है शांति का प्रतीक और भड़की तो विध्वंस का श्राप है। 
सुन्दर इस जहान में ईश्वर की अनमोल कृति तू ,
कहीं सुर्ख रंगो में सजी तो कभी श्वेत वस्त्रों का मिला अभिशाप है। 

किसी को तेरा हँसना नहीं भाता,
किसी को तेरे आँसू देखे बिना चैन नहीं आता।  
ईश्वर के बाद तेरी ही धुरी पे टिका ये सारा संसार है.
फिर भी तेरा सुख से जीना यहाँ दुश्वार है। 

कन्या रूप में तो पूज्यनीय तू,
और नारी रूप तेरा उपेक्षणीय है। 
तेरा सबकुछ सहते हुए भी,
हिम्मत से यूँ जीते जाना वन्दनीय है। 

ए नारी तेरी हरदम नई कहानी,
कहीं तू गंगाजल की बूँद तो कहीं बहता पानी। 
तेरे बिना ये दुनिया कैसे सुहानी,
कहीं तू गंगाजल की बूँद तो कहीं बहता पानी।

(स्वरचित) dj  कॉपीराईट © 1999 – 2015 Google
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शनिवार, 4 अप्रैल 2015

आप तो हंसिए





एक नारी की हँसी 

बचपन में खिलखिला के ही हँसा करती थी वो.... 
बड़ी होते-होते दुनिया ने दुनियादारी सिखा दी। 
आज कहते हैं दुनिया बदल गई, 
किसके सामने, कब, कितना ?
सब नाप-तौल के हंसना पड़ता है।  

पहले हँसी बस हँसी हुआ करती थी,
आज तो इसके कई नाम हैं।  
कभी बस मुस्कुराना,कभी झूठी हँसी, 
कहीं बनावटी भी हँसना पड़ता है। 

खिलखिलाना बिसरा है उसके लिए, 
मन की हँसी तो गुम सी हुई,
और लोग कहते हैं कि, 
ठहाके तो नारी के लिए अशोभनीय हैं,
तो बस.… 
दबी हँसी से ही काम चलाना पड़ता है।

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