पता नहीं कैसे सीख गई मैं माँ,
रोटी बनाना,
अब तो गोल बना लेती हूँ।
अब तो गोल बना लेती हूँ।
वो भारत का नक्शा,
अब नक्शा नहीं,
अब नक्शा नहीं,
पृथ्वी जैसा दिखता है।
आधा पक्का,आधा कच्चा,
सिकता था जो,
अब अच्छे से सिकता है।
अब अच्छे से सिकता है।
न जाने कैसे मैं सीख गई माँ,
सब्जी बनाना,
सब्जी बनाना,
जो कभी तीखी,
कभी फीकी,
कभी फीकी,
कभी,
लगभग बेस्वाद सी बनती थी
अब तो,
हर एक मसाला उसमे,
बराबर डलता है
लगभग बेस्वाद सी बनती थी
अब तो,
हर एक मसाला उसमे,
बराबर डलता है
नमक बिना माप भी,
अब तो,
एकदम सही पड़ता है।
अब तो,
एकदम सही पड़ता है।
जाने कब सीख गई मैं.
तय बजट में घर चलाना,
तय बजट में घर चलाना,
हर महीने,
कपड़ों पे खर्च कर देने वाली मैं,
अब तो,
पाई पाई का हिसाब रखती हूँ।
जरुरत की चीजों की खरीदी पर भी
अब तो,
काफी कंट्रोल करती हूँ
जाने मैं सीख कैसे गई माँ,
यूँ सबका ख्याल रखना,
किसी की परवाह न करने वाली मैं,
अब सबके लिए सोचने लगी हूँ,
खुद से भी ज्यादा तो
अब मैं,
दूसरों की चिन्ता करने लगी हूँ।
और जाने कैसे सीख गई,
मैं चुप रहना,
सबकुछ यूँ चुपचाप सहना,
आप पर बात बात पे झल्लाने वाली मैं,
अब अधिकतर मौन ही रहती हूँ ,
आज गलती नहीं मेरी कोई,
सही हूँ ,
फिर भी चुपचाप सब सहती हूँ।
न जाने कैसे सीख गई
इतनी दुनियादारी,
मैं माँ,
कभी छोटी -छोटी बातों पे भी
आहत हो जाने वाली मैं,
आज बड़े बड़े दंश झेलना सीख गई,
एक छोटी सी परेशानी पर भी
फूट फूट कर रोने वाली मैं,
आज अकेले में पलकों की कोरें
गीली करना सीख गई।
जो मेरे बस का न था ,
ऐसा मुझे लगता था।
जो मेरे लिए बना न था ,
ऐसा मुझे लगता था।
(स्वरचित) dj कॉपीराईट © 1999 – 2015 Google
कपड़ों पे खर्च कर देने वाली मैं,
अब तो,
पाई पाई का हिसाब रखती हूँ।
जरुरत की चीजों की खरीदी पर भी
अब तो,
काफी कंट्रोल करती हूँ
जाने मैं सीख कैसे गई माँ,
यूँ सबका ख्याल रखना,
किसी की परवाह न करने वाली मैं,
अब सबके लिए सोचने लगी हूँ,
खुद से भी ज्यादा तो
अब मैं,
दूसरों की चिन्ता करने लगी हूँ।
और जाने कैसे सीख गई,
मैं चुप रहना,
सबकुछ यूँ चुपचाप सहना,
आप पर बात बात पे झल्लाने वाली मैं,
अब अधिकतर मौन ही रहती हूँ ,
आज गलती नहीं मेरी कोई,
सही हूँ ,
फिर भी चुपचाप सब सहती हूँ।
न जाने कैसे सीख गई
इतनी दुनियादारी,
मैं माँ,
कभी छोटी -छोटी बातों पे भी
आहत हो जाने वाली मैं,
आज बड़े बड़े दंश झेलना सीख गई,
एक छोटी सी परेशानी पर भी
फूट फूट कर रोने वाली मैं,
आज अकेले में पलकों की कोरें
गीली करना सीख गई।
पता नहीं कैसे सीख गई मैं,
"माँ"
ये सबकुछ,जो मेरे बस का न था ,
ऐसा मुझे लगता था।
जो मेरे लिए बना न था ,
ऐसा मुझे लगता था।
पर देखो सीख ही गई मैं,
पता नहीं कैसे ?
पता नहीं कैसे ?
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बहुत ही सूंदर ममत्व से भरपूर ।
जवाब देंहटाएंदिव्या जी, यही जिन्दगी है. इन्सान कैसे बड़ा होता है, कैसे धीरे-धीरे सब कुछ सिखता जाता है, पता ही नहीं चलता! सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंबहोत ही सुंदर। 🙏
जवाब देंहटाएंthanku shakir
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